जब किसी कथन को पढ़ने या सुनने से निन्दा का आभास हो किन्तु वास्तव में प्रशंसा की जा रही हो, तो वहाँ व्याजस्तुति अलंकार होता है।
उदाहरण– 1. गंगा क्यों टेढ़ी चलती हो, दुष्टों को शिव कर देती हो।
क्यों यह बुरा काम करती हो, नरक रिक्त कर दिवि भरती हो।।
2. निशदिन पूजा करत रहत श्याम बूढ़ि तब रंग।
जनम-जनम की देह को छीनत हौं एक संग।।
इस कथन को पढ़ने या सुनने में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि श्रीकृष्ण की निन्दा की जा रही है, लेकिन वास्तव में सराहना (प्रशंसा) की जा रही है। इस कथन का तात्पर्य है कि भगवान श्री कृष्ण जन्म-जन्मान्तरों के बन्धनों के पाश से अपने भक्तों को छुटकारा दिलवाकर उन्हें स्वयं में निरोहित कर लेते हैं।
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जहाँ कथन में स्तुति का आभास हो किन्तु वास्तव में निन्दा की जा रही हो, वहाँ व्याजनिन्दा अलंकार होता है।
उदाहरण– 1. राम साधु, तुम साधु सुजाना।
राम मातु भलि मैं पहिचाना।।
2. तुम तो सखा श्याम सुन्दर के सकल जोग के ईस।
प्रस्तुत उदाहरण में उद्धव जी की सराहना होने का आभास हो रहा है, लेकिन वास्तव में 'जोग के ईस' शब्दों से व्यंग और निन्दा के भाव परिलक्षित हैं। अतः यहाँ व्याजनिन्दा अलंकार है।
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(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
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R F Temre
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