नायक और नायिका के सौन्दर्य तथा प्रेम सम्बन्धी परिपक्व अवस्था फो श्रृंगार रस कहते हैं। श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार, "सहृदय के हृदय में स्थित रति नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग होता है तब श्रृंगार रस की निष्पत्ति होती है। इस रस को 'रसराज' कहा जाता है।
श्रृंगार रस के दो भेद होते हैं–
1. संयोग श्रृंगार रस
2. वियोग श्रृंगार रस।
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जहाँ नायक और नायिका के संयोग की स्थिति का वर्णन होता है, वहाँ संयोग श्रृंगार रस होता है।
उदाहरण– 1. दुलह श्रीरघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माही।
गावति गीत सखै मिलि सुन्दरी, बेद गुवा जुरि विप्र पढ़ाही।
राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाही।
यतै सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारत नाहीं।
उपरोक्त उदाहरण में,
स्थायी भाव– रति
आश्रय– जानकी
विषय– श्री राम
उद्दीपन– कंगन के नग में प्रिय का प्रतिबिम्ब
अनुभाव– कर टेकना, पलक न गिरना
संचारी भाव– हर्ष, जड़ता, उन्माद।
2. एक पल मेरे प्रिया के दृग पलक
थे उठे ऊपर सहज नीचे गिरे
चपलता के इस विकंपित पुलक से
दृढ़ किया मानो प्रणय संबंध था।
उपर्युक्त उदाहरण में,
स्थायी भाव– रति
आलम्बन– धरातल
उद्दीपन– निशा, सेज
अनुभाव– बैठना, संकुचित होना, मान करना, स्मरण करना
संचारी भाव– हृदय में हलचल, चपलता।
3. देखि रूप लोचन ललचाने
हरषे जनु निज निधि पहचाने
अधिक सनेह देह भई मोरी
सरद ससिहिं जनु वितवचकोरी।
4. बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सौंह करें, भौंहनि हँसे, देन कहे नट जाय।
5. मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
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जिस रचना में नायक और नायिका के विरह का वर्णन हो वहाँ वियोग श्रृंगार रस होता है।
उदाहरण– 1. उनका यह कुंज-कुटीर नहीं झड़ता उड़ अंशु-अबीर जहाँ
अलि, कोकिल, कीर, शिखी सब हैं सुन चातक की रट पीव कहाँ?
अब भी सब साज-समाज वही तब भी सब आज अनाथ यहाँ
सखि जा पहुँचे सुध-संग कहीं यह अंध सुगंध समीर वहाँ।
उपर्युक्त उदाहरण में,
स्थायी भाव– रति
आश्रय– यशोधरा
विषय– सिद्धार्थ
उद्दीपन– कुंज-कुटीर, कोकिल, भौरों और पपीहे की ध्वनियाँ
अनुभाव– सखी से विषाद भरे स्वर में कथन
संचारी भाव– स्मृति, मोह, विषाद।
2. आँखों में प्रियमूर्ति थी, भूले थे सब भोग।
हुआ योग से भी अधिक, उनका विषम वियोग।
3. ललन चलन सुधि पलन में, आय गयो बहुवीर।
अध खण्डित बीरी रही, पीरी परी शरीर।
4. अँखियाँ हरि दरसन की भूखी।
कैसे रहें रूप रस राँची ए बतियाँ सुनि रूखीं।
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3. मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी― सूरदास
4. बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ― केशवदास
5. मैया, मोहिं दाऊ बहुत खिझायो― सूरदास
I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
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